रांचीः डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय शोध संस्थान मोरहाबादी में तीन दिवसीय सेमिनार का आयोजन 7 सितंबर से 9 सितंबर तक चलेगा। सेमिनार में देश के विभिन्न राज्यों से आए 21 अर्थशास्त्री आदिवासी अर्थव्यवस्था व मुख्य धारा की अर्थव्यवस्था के बीच के अंतर विरोध और अन्य पहलुओं पर अपने विचार रखेंगे।

पूरे विश्व में बाजार आधारित अर्थव्यवस्था हावी है

टीआरआई के निदेशक रणेंद्र ने बुधवार को पत्रकारों को बताया कि आज पूरे विश्व में बाजार आधारित अर्थव्यवस्था हावी है। ऐसे में यह व्यवस्था वेलफेयर स्टेट की अवधारणा को खारिज करती हैं। पर,  दुनिया में जो हालात है उसे यह पता चलता है कि यह अर्थव्यवस्था भी इंसान के लिए ज्यादा कारगर नहीं हैं। क्योंकि, बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में चुनिंदा लोगों का संसाधन पर कब्जा होता है। झारखंड के संदर्भ में कहें तो यहां आदिवासियों की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। यहां का समाज मदईत और सहभागिता के आधार पर जीता है। जहां बाजार आधारित लेबर की अवधारणा नहीं है।

60 वर्षों में विकास को लोग चुनौती दे रहे हैं: आशीष

पुणे के अर्थशास्त्री आशीष कोठारी ने कहा कि, बीते 60 वर्षों में विकास की जो अवधारणा सामने आई है उसे लोग चुनौती दे रहे हैं। इस विकास की वजह से पर्यावरण पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है। यह आकलन है की आने वाले कुछ सालों में लाखों लोग हर साल गर्मी की वजह से मरेंगे। उन्होंने कहा की समुदायिकता और सहभागिता आधारित अर्थव्यवस्था से ही दुनिया में उम्मीदें कायम रह सकती है।

झारखंड को विकास का दुष्परिणाम सबसे ज्यादा झेलना पड़ा हैः

अर्थशास्त्री डॉ रमेश शरण ने कहा की झारखंड को विकास का दुष्परिणाम सबसे ज्यादा झेलना पड़ा है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कैंसर सेल की तरह है जो ज्यादा और ज्यादा मुनाफा की तरफ बढ़ती चली जाती है। विकास की नई परिभाषा लोगों के द्वारा ही गड़ी जानी चाहिए। जिसमें विकास किसके लिए क्यों और कैसे हो यह तय किया जाना चाहिए। इस पर सिर्फ पूंजीपतियों की मनमर्जी ही नहीं चलनी चाहिए। संवाददाता सम्मेलन को डॉ जया मेहता सहित अन्य ने भी संबोधित किया।

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