Joharlive Team

रांची। भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा को एक नायक के तौर पर देखा जाता है। उनकी लड़ाई सिर्फ अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ ही नहीं, बल्कि देश के शोषक समाज के खिलाफ भी थी। उन्होंने झारखंड में आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी।

9 जून भगवान बिरसा मुंडा का शहादत दिवस है। पुण्‍यतिथि के मौके पर सीएम हेमंत सोरेन, मंत्री आलमगीर आलम, केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा, सुदेश महतो, बीजेपी प्रदेश अध्‍यक्ष दीपक प्रकाश, पूर्व सीएम रघुवर दास समेत कई नेताओं और सामाजिक लोगों ने श्रद्धांजलि दी। भगवान बिरसा मुंडा को भारतीय समाज एक ऐसे नायक के तौर पर जानता है, जिसने सीमित संसाधनों के बावजूद अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था।

वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक महान नायक के रूप में उभरे। बिरसा मुंडा के नेतृत्व में आदिवासियों ने मुंडाओं के महान आंदोलन ‘उलगुलान’ को अंजाम दिया। वह महज 25 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए थे। अपने नेतृत्व के कारण मुंडा हमेशा के लिए अमर हो गए। उन्हें उनके समुदाय के लोगों द्वारा भगवान का दर्जा दिया जाता है और आज भी गर्व के उन्हें याद किया जाता है।

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहातु गांव में हुआ था। वह मुंडा जाति से ताल्लुक रखते थे। घर की स्थिति खराब होने के कारण उन्हें अपने मामा के यहां भेज दिया गया था। उस समय क्रिस्चियन स्कूल में एडमिशन लेने के लिए इसाई धर्म अपनाना जरुरी हुआ करता था, इसलिए बिरसा ने अपना धर्म परिवर्तन कर अपना नाम बिरसा डेविड रख दिया, जो बाद में बिरसा दाउद हो गया था। लेकिन कुछ सालों बाद उन्होंने क्रिस्चियन स्कूल छोड़ दिया, क्योंकि उस स्कूल में आदिवासी संस्कृति का मजाक बनाया जाता था, जो कि बिरसा मुंडा को बिल्कुल भी पसंद नहीं था।

भगवान बिरसा मुंडा को भारतीय समाज एक ऐसे नायक के तौर पर जानता है, जिसने सीमित संसाधनों के बावजूद अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। उलगुलान की शुरुआत करने वाले ये वो शख्स थे जो जननायक के तौर पर इतिहास में दर्ज हो गए। बिरसा मुंडा ने अंग्रेजी हुकूमत के दांत खट्टे कर दिये थे। अंग्रेजों ने उन्‍हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था। जहां 9 जून 1900 को उन्‍होंने अपनी अंतिम सांस ली। इस दिन झारखंड समेत पूरे देश में उनका शहादत दिवस मनाया जाता है।

उन्हें साल 1900 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ मोर्चा खोलने के लिए गिरफ्तार किया गया और 9 जून 1900 को रहस्यमयी परिस्थितियों में रांची जेल के भीतर उनकी मौत हो गई। वे साल 1897 से 1900 के बीच अंग्रेजों के खिलाफ गोरिल्ला युद्ध लड़ते रहे। अंग्रेजों ने उन पर उस दौर में 500 रुपये की इनामी धनराशि रखी थी।

भगवान बिरसा मुंडा के निशाने में भी अचूक थे, बांसुरी बजाने में भी निपुण थे। इनका निशाना तो अचूक होता था। जन कल्याण की भावना उनमें इतनी थी कि लोग उन्हें धरती आबा कहते थे। उनकी लोगों में विश्वास बढ़ने के कारण उनके विचारों से लोग काफी प्रभावित होने लगे, जिससे अंग्रेजों के कान खड़े हो गए। अंग्रेज उनको शक की निगाहों से देखने लगें और इसी शक के कारण अंग्रेज उन्हें जेल में भी बंद कर दिया। बिना किसी कारण के जब अंग्रेजों ने इन्हें जेल में बंद कर दिया, कुछ दिनों बाद जेल से निकलने के बाद वे अंग्रेजों के खिलाफ और आक्रोशित हो गए। इसी के बाद उन्होंने बिरसा सेना का गठन किया और अंग्रेजों के खिलाफ खुलकर विद्रोह शुरू किया।

3 फरवरी 1900 को बिरसा मुंडा को धोखे से गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ ही महीने बाद 25 वर्ष की उम्र में 9 जून को बीमारी की वजह से जेल में ही बिरसा का निधन हो गया। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुंडा को भगवान की तरह पूजा जाता है और उनके बलिदान को याद किया जाता है।

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