JoharLive Desk
नयी दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने पांच सौ साल से अधिक पुराने अयोध्या राम जन्मभूमि विवाद का आज पटाक्षेप करते हुए विवादित भूमि श्रीराम जन्मभूमि न्यास को सौंपने और सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद के निर्माण के लिए अयोध्या में ही उचित स्थान पर पांच एकड़ भूमि देने का निर्णय सुनाया।
प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह फैसला सुनाते हुए कहा कि विवादित भूमि श्रीराम जन्मभूमि न्यास को दी जायेगी तथा सुन्नी वक्फ को बोर्ड अयोध्या में ही पांच एकड़ वैकल्पिक जमीन उपलब्ध करायी जाये। गर्भगृह और मंदिर परिसर का बाहरी इलाका राम जन्मभूमि न्यास को सौंपा जाये।
पीठ ने कहा है कि विवादित स्थल पर रामलला के जन्म के पर्याप्त साक्ष्य हैं और अयोध्या में भगवान राम का जन्म हिन्दुओं की आस्था का मामला है और इस पर कोई विवाद नहीं है।
दूसरी प्राथमिकी में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी,मुरली मनोहर जोशी,उमा भारती,विनय कटियार,विश्व हिंदू परिषद के पूर्व अघ्यक्ष अशोक सिंघल ,गिरिराज किशोर ,बिष्णु हरि डालमिया,साध्वी रितम्भरा समेत अन्य लोगों के नाम थे । इन सभी पर उत्तेजक भाषण देने के आरोप थे जिनके भाषण से डांचा गिराये जाने की भूमिका तैयार हुई ।
इसके अलावा 47 और प्राथमिकी दर्ज की गई थी जिसमें मीडियाकर्मी के साथ मारपीट,उनके कैमरे छीनने का आरोप था । इसतरह कुल 49 प्राथमिकी दर्ज हुई । इनमें केस नंबर 197 की जांच का जिम्मा सीबीआई को दिया गया जबकि केस नंबर 198 को सीबी सीआईडी को सौंपा गया ।
बाद में सभी प्राथमिकी को एक कर दिया गया । सीबीआई ने केस नंबर 198 के मामले में सभी आरोपियों के खिलाफ 9 सितम्बर 1997 को आरोप पत्र दायर करने का आदेश दिया था ।
अयोध्या के करीब पांच सौ साल पुराने विवाद में 206 साल के बाद शनिवार को ऐतिहासिक फैसला सुनाया।
अयोध्या में राम मंदिर और बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक को लेकर चल रहा विवाद करीब 500 साल पुराना है। माना जाता है कि इस विवाद की शुरुआत 1528 में तब हुई थी जब मुगल शासक बाबर ने राम मंदिर को गिराकर वहां मस्जिद का निर्माण कराया था। इसी वजह से इसे बाबरी मस्जिद कहा जाने लगा था। विवादित स्थल पर हिंदू और मुस्लिम पक्षकारों में मालिकाना हक का विवाद सबसे पहले 1813 में शुरू हुआ था।
मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर की संविधान पीठ ने शनिवार को इस संवेदनशील मामले में अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया।
शीर्ष अदालत ने गत 16 अक्टूबर को इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। प्राचीन इतिहास के पन्नों को पलटते हुए, धार्मिक मान्यताओं एवं परम्पराओं तथा पुरातात्विक सवालों पर विचारोत्तोजक बहस के बीच अयोध्या की विवादित जमीन से संबंधित मुकदमे पर 40 दिन तक जिरह होने के बाद इस ऐतिहासिक सुनवाई का उस दिन पटाक्षेप हो गया था और पूरे देश को फैसले का इंतजार था।
भारतीय राजनीति पर तीन दशक से अधिक समय से छाये इस विवाद की सुनवाई के दौरान राम जन्मभूमि पर अपने दावे के पक्ष में जहां रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा, ऑल इंडिया हिन्दू महासभा, जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति एवं गोपाल सिंह विशारद ने दलीलें दी, वहीं सुन्नी वक्फ बोर्ड, हासिम अंसारी (मृत), मोहम्मद सिद्दिकी, मौलाना मेहफुजुरहमान, फारुख अहमद (मृत) और मिसबाहुद्दीन ने विवादित स्थल पर बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक का दावा किया।
इस मामले में शीर्ष अदालत की ओर से न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) मोहम्मद इब्राहिम कलीफुल्ला के नेतृत्व में गठित तीन सदस्यीय मध्यस्थता पैनल की ओर से मध्यस्थता असफल रहने की बात बताये जाने के बाद संविधान पीठ ने नियमित सुनवाई की और सभी पक्षों को अपना-अपना पक्ष रखने के लिए पर्याप्त अवसर दिये।
हिन्दू पक्ष की ओर से सबसे पहले ‘रामलला विराजमान’ के वकील के एस परासरण ने दलीलें शुरू की थी, जबकि सुनवाई का अंत सुन्नी वक्फ बोर्ड की जिरह से हुआ। चालीस दिन की सुनवाई के दौरान कई मौके ऐसे आये जब दोनों पक्षों के वकीलों में गर्मागर्म बहस हुई।
दरअसल उच्चतम न्यायालय में अयोध्या विवाद की सुनवाई न्यायिक इतिहास की दूसरी सबसे लंबी सुनवाई बन गयी। इससे पहले आधार की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई 38 दिनों तक चली थी जबकि 68 दिनों की सुनवाई के साथ ही केशवानंद भारती मामला पहले पायदान पर बना हुआ है।
वर्ष 1973 में ‘केशवानंद भारती बनाम केरल’ के मामले में उच्चतम न्यायालय की 13 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अपने संवैधानिक रुख में संशोधन करते हुए कहा था कि संविधान संशोधन के अधिकार पर एकमात्र प्रतिबंध यह है कि इसके माध्यम से संविधान के मूल ढांचे को क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए। ‘केशवानंद भारती बनाम केरल’ के मामले में 68 दिन तक सुनवाई हुई, यह तर्क-वितर्क 31 अक्टूबर 1972 को शुरू होकर 23 मार्च 1973 को खत्म हुआ था।
आधार की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर शीर्ष कोर्ट में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली बेंच ने सुनवाई की थी। इस बेंच में न्यायमूर्ति ए के सीकरी, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति अशोक भूषण शामिल थे। आधार मामले में 38 दिनों तक चली सुनवाई के बाद गत वर्ष 10 मई को फैसला सुरक्षित रख लिया गया था, जबकि इस पर गत वर्ष सितंबर में फैसला सुनाया गया था। इस मामले में विभिन्न सेवाओं में आधार की अनिवार्यता की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी।
मुस्लिम पक्ष ने कहा था कि यदि मस्जिद के लिए बाबर द्वारा इमदाद देने के सबूत नहीं हैं, तो सबूत राम मंदिर के दावेदारों के पास भी नहीं है, सिवाय कहानियों के। मुस्लिम पक्ष की ओर से पेश वकील राजीव धवन ने दलील दी कि 1855 में एक निहंग वहां आया, उसने वहां गुरु गोविंद सिंह की पूजा की और निशान लगा दिया था। बाद में सारी चीजें हटाई गईं। उसी दौरान बैरागियों ने रातोंरात वहां बाहर एक चबूतरा बना दिया और पूजा करने लगे। उन्होंने बाबर की इमदाद के संबंध में उक्त बात तब कही थी जब संविधान पीठ के सदस्य न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पूछा था कि क्या इस बात का कोई सबूत है कि बाबर ने भी मस्जिद को कोई इमदाद दी हो?
श्री धवन ने कहा था कि ब्रिटिश हुकूमत के गवर्नर जनरल और फैज़ाबाद के डिप्टी कमिश्नर ने भी पहले बाबर के फरमान के मुताबिक मस्जिद की देखभाल और रखरखाव के लिए रेंट फ्री गांव दिए, फिर राजस्व वाले गांव दिए। आर्थिक मदद की वजह से ही दूसरे पक्ष का ‘प्रतिकूल कब्जा’ नहीं हो सका था। सन् 1934 में मस्जिद पर हमले के बाद नुकसान की भरपाई और मस्जिद की साफ-सफाई के लिए मुस्लिमों को मुआवजा भी दिया गया था।
उन्होंने दलील दी थी कि शीर्ष अदालत अनुच्छेद 142 के तहत मिली अपरिहार्य शक्तियों के तहत दोनों ही पक्षों की गतिविधियों को ध्यान में रखकर इस मामले का निपटारा करें। उन्होंने कहा था कि मस्जिद पर जबरन कब्जा किया गया। लोगों को धर्म के नाम पर उकसाया गया, रथयात्रा निकाली गई, लंबित मामले में दबाव बनाया गया। उन्होंने कहा कि मस्जिद ध्वस्त की गई और तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को अवमानना के चलते एक दिन की जेल भी काटनी पड़ी थी।
मुस्लिम पक्ष के वकील ने कहा था कि कोई भी अयोध्या को राम के जन्म स्थान के रूप में अस्वीकार नहीं कर रहा है। यह विवाद बहुत पहले ही सुलझ गया होता अगर यह स्वीकार कर लिया जाता कि राम केंद्रीय गुंबद के नीचे पैदा नहीं हुए थे। हिंदुओं ने जोर देकर कहा है कि राम केंद्रीय गुंबद के नीचे पैदा हुए थे। सटीक जन्म स्थान ही मामले का मूल है।
मुस्लिम पक्ष ने हिन्दू पक्ष के इस दावे का खंडन भी किया था कि बाबरी मस्जिद इस्लाम के स्थापित नियमों के खिलाफ थी, साथ ही उसने कहा था कि मोहरहित ‘निर्मोही’ और बैरागी को जमीन से मोह क्यों? मुस्लिम पक्षकार के वकील मोहम्मद निज़ाम पाशा ने कहा कि बाबरी मस्जिद वैध मस्जिद थी या नहीं, वहां वजू करने की व्यवस्था थी या नहीं, इसे इस्लाम के सिद्धांतों पर परखने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि सिर्फ यह देखे जाने की जरूरत है कि वहां के लोग इसे मस्जिद मानते थे या नहीं।
हिन्दू पक्ष की दलील थी कि बाबरी मस्जिद में वज़ू करने की कोई जगह नहीं थी। उन्होंने जमाली कमाली मस्जिद, सिद्धि सईद मस्जिद का उदाहरण देते हुए कहा था कि उस मस्जिद में कोई गुम्बद नहीं है, पर जाली लगी हुई है जिसे ‘ट्री ऑफ लाइफ’ कहते हैं। यही नहीं वहां पर जो नक्काशी है उसमें पेड़ और फूल बने हुए हैं। हिन्दू पक्ष की यह भी दलील है कि विवादित जमीन की खुदाई में ढांचे के जो अवशेष मिले हैं उसमें पेड़ और फूल बने हैं जो मस्जिदों में नहीं होते।
एक मुस्लिम पक्ष ने कहा कि हिन्दुओं के पास केवल राम चबूतरे का अधिकार है। मोहम्मद फारुख की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता शेखर नाफडे ने संविधान पक्ष के समक्ष कहा था कि हिन्दुओं के पास उस स्थान का सीमित अधिकार है।
हिन्दुओं के पास चबूतरे का अधिकार तो है, लेकिन वे स्वामित्व हासिल करने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने कहा था कि हिंदुओं की ओर से लगातार अतिक्रमण की कोशिश की गई।
इससे पहले मुस्लिम पक्ष की वकील मीनाक्षी अरोड़ा ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की रिपोर्ट का जिक्र करते हुए कहा कि एएसआई रिपोर्ट ऑपिनियन और अनुमान पर आधारित है। पुरातत्व विज्ञान, भौतिकी और रसायन विज्ञान की तरह विज्ञान नहीं है। प्रत्येक पुरातत्व विज्ञानी अपने अनुमान और ओपिनियन के आधार पर नतीजा निकलता है।