Joharlive Desk
पटना। वैश्विक महामारी कोरोना की रोकथाम के लिए जारी लॉकडाउन के बीच रेलवे के थमे पहियों के चल पड़ने के बावजूद कुलियों के जीवन की ट्रेन अब भी बेटपरी हैं और उसकी रफ्तार पर ब्रेक लगा हुआ है। रेलवे ने 167 साल पहले जब पहली पैसेंजर ट्रेन चलाई थी तबसे कुली रेलवे का अहम हिस्सा हैं। पटरियों पर दौड़ती ट्रेनें ही कुलियों की लाइफ लाइन है। कोरोना के फैलते संक्रमण के मामलों की गंभीरता को देखते हुए केन्द्र सरकार ने ट्रेनों के परिचालन पर रोक लगा दी थी। रेलवे के पहिए थमने के बाद सबसे अधिक कोई प्रभावित हुआ तो वह कुली हैं, जिनकी रोजी-रोटी ही प्लेटफाॅर्म पर लोगो के सामान का बोझ उठाने पर निर्भर है। ट्रेनों के बंद होते ही कुलियों के सामने परिवार के भरण-पोषण की समस्या उत्पन्न हो गई। हालांकि इस बीच श्रमिक ट्रेनों के परिचालन और अब कुछ अन्य ट्रेनों का परिचालन शुरू हो गया है बावजूद इसके कुलियों की जिंदगी की गाड़ी बेपटरी है।
‘सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं, लोग आते हैं, लोग जाते हैं, हम यहां पे खड़े रह जाते हैं!’ कुलियों का जिक्र होते ही कुली फिल्म का यह गाना बरबस याद आ जाता है। रेलवे स्टेशन पर जो सबसे ज्यादा चमकता रंग दिखाई देता था वह कुलियों के कुर्तों का लाल रंग था। इन कुर्तों के पल्लू अब आंसू पोंछने के काम आ रहे हैं।‘इंजनकी सीटी’ की आवाज सुनते हीं स्टेशन पर ट्रेनों के रुकने के पहले ही दौड़ लगाकर यात्रियों का समान उठाने की आपाधापी करने वालों कुलियों की जिंदगी लॉकडाउन में ठहर गयी है।
पटना जंक्शन पर पदस्थापित वाणिज्य यातायात निरीक्षक शिव कल्याण ने पत्रकारों को बताया कि कोरोना महामारी के समय कुलियों के जीवन में गहरा संकट छा गया है। पटना जंक्शन पर अधिकृत कुलियों की संख्या करीब 150 है। लॉकडाउन के बाद सभी कुली अपने-अपने घर चले गये। लॉकडाउन पूरी तरह से समाप्त होने के बाद कुली काम पर लौटेंगे। सभी कुली काम पर वापस आना चाहते हैं लेकिन फिलहाल यह संभव होता नहीं दिखता है।
पटना कुली संघ के अध्यक्ष मुंशी यादव ने बताया कि वह करीब 25 साल से कुली का काम कर रहे हैं। मूल रूप से भोजपुर जिले के बड़हरा थाना क्षेत्र के खबासपुर गांव के रहने वाले मुंशी यादव ने कहा कुली का पूरा जीवन देश सेवा में लगा रहता है। दिन रात कुली यात्रियों का बोझ उठाते हुए अपना जीवन यापन करते हैं। उनके पास कमाई का एक मात्र साधन यही है। पटरियों पर दौड़ती ट्रेनें ही उनका जीवन चलाती है। उन्होंने बताया, “मेरे पिता गांधी यादव भी यही काम करते थे। दो माह से अधिक का समय हो गया है। हमारी कमाई पूरी तरह ठप है। हमने कभी ऐसे दिन देखने की कल्पना तक नहीं की थी। हम पहले प्रति दिन 200 से 250 रुपये कमा लेता थे। इसी से परिवार का खर्च चलता था। लेकिन, लॉकडाउन के कारण हमारे लिए परिवार का भरण-पोषण कर पाना भी मुश्किल हो गया है।”
करबिगहिया में किराये पर मकान में रहने वाले श्री यादव ने बताया कि रेल प्रशासन से उन्होंने सहायता की गुहार लगायी थी लेकिन किसी ने कुछ नहीं सुना। समस्तीपुर, बनारस, लखनउ और भटिंडा में कुलियों की मदद रेल प्रशासन ने की है लेकिन अबतक पूर्व-मध्य रेल प्रशासन ने उनकी मदद नहीं की है। वह दो माह से मकान का तक किराया नहीं दे पाए हैं। उनके पास जब पैसे ही नही हैं तो भला वह मकान का किराया कहां से चुका पायेंगे। उन्होंने कहा, “हम आगे इसी उम्मीद में बैठे हैं कि अब जब ट्रेनों का परिचालन धीरे-धीरे शुरू कर दिया गया है तो अब हमें भी काम पर वापस बुलाया जायेगा ताकि हमारा जीवन पहले की तरह सामान्य हो सके।
पटना जंक्शन पर करीब 16 वर्ष से कुली का काम कर रहे नारद प्रसाद ने बताया कि मेहनतकश कुली का यही जीवन है। खून-पसीना बहाकर हर कुली रोज तीन से चार सौ रुपये कमा लेता था लेकिन जब से कोरोना वायरस से लोगों को बचाने के लिए लॉकडाउन लागू हुआ है, ट्रेनों की आवाजाही बंद हो गयी और कुली और उनका परिवार संकट में है। उन्होंने बताया कि 22 मार्च से रेलवे के पहिए थमने के बाद उनकी जिंदगी भी ठहर सी गयी है। स्टेशन की रौनक धीरे धीरे लौट रही है उम्मीद है कि अब उनकी जिंदगी में फिर से खुशियां लौटेंगी।
वहीं, वर्ष 2004 से पटना जंक्शन पर कुली का काम कर रहे भोजपुर जिले के बिहिंया थाना क्षेत्र के तेघड़ा गांव निवासी श्रवण साह ने बताया कि लॉकडाउन में उनकी कमाई पूरी तरह ठप है। पहले कमाई से अपना खर्च निकाल कर जो बचता था उसे घर भेज देते थे। उसी से परिवार वालों का भरण-पोषण होता था लेकिन अब जब अपने पेट के ही लाले पड़े हैं तो घर-गांव की सुध कैसे लें। उनके पास न तो दवा के लिए पैसे हैं और न ही रोटी के लिए। घर का बोझ उठाने के लिए अपने सगे-संबंधियों से कर्ज लेना पड़ रहा है। कुलियों की मदद रेलवे प्रशासन भी नहीं कर रहा है। रेलवे प्रशासन को उनकी मदद करनी चाहिए लेकिन कोई नहीं सुन रहा है।