राकेश
देवघर : दशहरा पर पूरे देश में रावण का पुतला जलाने की परंपरा है. लेकिन देवघर (बैद्यनाथधाम) में रावण का पुतला नहीं जलता है. यहां रावण को राजा माना जाता है और सालों भर उनकी पूजा होती है. बाबा बैद्यनाथ की पूजा से पहले लोग रावण की स्तुति करते हैं. रावण आज भी देवघर की संस्कृति में रचे-बसे हैं. तीर्थ पुरोहित समाज के लोगों में त्रिपुंड लगाने की परंपरा हो या फिर शिवगंगा और हरिलाजोड़ी से जुड़ी रावण की कथाएं, सब में राक्षस राज आज भी विद्यमान हैं, ऐसी मान्यता है. बैद्यनाथ मंदिर के तत्कालीन सरदार पंडा भवप्रीता नंद ओझा ने तो रावण का गुणगान करते हुए देवरिया भाषा में झूमर की भी रचना की थी. देवघरवासी मानते हैं कि रावण के कारण ही बैद्यनाथधाम में बाबा वैद्यनाथ की स्थापना हुई, इस कारण लोग रावण के सकारात्मक रूप को पूजते हैं. भवप्रीतानंद के झूमर में उल्लेख है- धन्य धन्य रावण राजा… करे छी तोरो पूजा… पारसमणि आनी देल्हन हाथ बाबा भोलानाथ… देघरै विराजे गौरा साथ… (धन्य- धन्य है रावण राजा, आपकी पूजा करते हैं. पारसमणि के रूप में आपने बाबा बैद्यनाथ को देवघर लाकर हमलोगों के हाथ में दिया, जिससे हमलोगों की जीविका चलती है).
बाबा बैद्यनाथ से पहले देवघर में महापंडित रावण का नाम लिया जाता है. गंगाजल लेकर हर साल देवघर पहुंचने वाले लाखों शिव भक्त जब बैद्यनाथधाम पहुंच कर अपने कांवर के गंगा जल का संकल्प कराते हैं तो कहते हैं- श्रीश्री 108 रावणेश्वर बैद्यनाथ. इसके वाद संकल्प के लिए मंत्र पढ़ते हैं.
पंडा धर्मरक्षिणी सभा के पूर्व महामंत्री पंडित दुर्लभ मिश्र कहते हैं- देवघर में रावण के सकारात्मक रूप की पूजा होती है. महापंडित, ऋषि संतान रावण के कारण ही आज देवघर का अस्तित्व है. इसलिए देवघर सहित आसपास के इलाके में दशहरा पर रावण का पुतला नहीं जलता है.
एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर जाकर शिवजी की प्रसन्नता के लिये घोर तपस्या की और अपने सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने शुरू कर दिये. एक-एक करके नौ सिर चढ़ाने के बाद दसवां सिर भी काटने को ही थे कि शिवजी प्रसन्न होकर प्रकट हो गये. उन्होंने उसके दसों सिर ज्यों-के- त्यों कर दिये और उसे वरदान मांगने को कहा. रावण ने लंका में जाकर उस लिंग को स्थापित करने के लिए उसे ले जाने की आज्ञा मांगी. शिवजी ने अनुमति तो दे दी, पर इस चेतावनी के साथ दी कि यदि मार्ग में इसे पृथ्वी पर रख देगा तो वह वहीं अचल हो जाएगा. रावण शिवलिंग लेकर चला पर मार्ग में एक चिता भूमि (श्मशान) आने पर उसे लघुशंका निवृति की आवश्यकता हुई. रावण उस लिंग को एक चरवाहे को थमा लघुशंका-निवृत्ति करने चला गया. इधर उस चरवाहे ने शिवलिंग को बहुत अधिक भारी अनुभव कर भूमि पर रख दिया. फिर क्या था, लौटने पर रावण पूरी शक्ति लगाकर भी शिवलिंग को नहीं उठा सका और निराश होकर उस पर अपना अंगूठा गड़ाकर लंका को चला गया. इधर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने आकर उस शिवलिंग की पूजा की. शिवजी का दर्शन होते ही सभी देवी-देवताओं ने शिवलिंग की वहीं उसी स्थान पर प्रतिस्थापना कर दी और शिव स्तुति करते हुए वापस स्वर्ग को चले गये. जहां शिवलिंग की स्थापना हुई, वही आज का बैद्यनाथधाम है.
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