करम पर्व झारखण्ङ के संस्कृति से जुङा हुआ पर्व है, जिसे आदिवासी मूलवासी समाज के लोग काफी धूमधाम से मनाते है,करम पर्व प्रकृति व पेङ पौधे की रक्षा के साथ साथ भाई बहनो के अटूट प्रेम का प्रतीक भी है,
करम पर्व भादो माह के एकादशी शुक्ल पक्ष को मनाया जाता है, किन्तु इसके विधि-विधान सात दिन पहले से ही शुरू हो जाते हैं, कुंवारी लड़कियां अपने साथ बांस की टोकरी (डाला) और अनाज (कुर्थी, गेहूं, चना और धान आदि) के बीज लेकर गांव की नदी, पोखर या तालाब के घाट पर जाती हैं. स्नान के बाद टोकरी में बालू डालती हैं. यहीं से बीज के अंकुरित होने की प्रक्रिया शुरु हो जाती है एवं प्रति संध्या गांव की सखी-सहेलियां एक साथ घर के आंगन में टोकरी (डाला) को रखकर एक-दूसरे का कमर पकड़े नाचती, झूमती, गाती हुई चारों ओर परिक्रमा करती हैं. कुंवारियों के नियमित स्नेह दुलार और नृत्य गीतों के बीच बीज अंकुरित होकर पौधे बढ़ते जाते हैं जो एकादशी के दिन करम पूजा के रूप में शामिल होते हैं. ये अंकुरित पौधे जावा कहलाते हैं,करम के पेड़ से दो टहनियां लाकर गाड़ा जाता है. इसी करम टहनी के पास करम देवता की पूजा की जाती है, बहने अपने भाईयो की सुख समृध्दि व दीर्घ आयु उम्र की कामना के लिए निर्जला उपवास कर पूजा करती है ,पूजा के उपरान्त बहनो के नृत्य- संगीत मे भाई ढोल नगाङा बजाकर आनन्द को चार गुणा कर देता है,झारखण्ङ के आदिवासी मूलवासियो का धार्मिक आस्था प्रकृति पूजक है और प्रकृति पूजक लोगो के संस्कार ही पर्यावरण संरक्षण के है , करम मे पूजे जाने वाले करम वृक्ष, सरहुल में पूजे जाने वाले शालवृक्ष और शादी-ब्याह में पूजे जाने वाले आम-महुआ के पेड़ साधारणत: आदिवासी मूलवासियो के द्वारा काटे नहीं जाते, इसके अलावे जिस व्यक्ति का टोटेम (गुस्टि) पेङ पौधो से मिलते-जुलते होते है उसे भी वह नहीं काटते है इसलिए करम पर्व वास्तव मे प्रकृति वंदना का पर्व है,लेखक कुरमी/कुङमी विकास मोर्चा के केन्द्रीय मीङिया प्रभारी है !