रांची : झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) ने अपने गठन के बाद से पारिवारिक राजनीति के कई उदाहरण प्रस्तुत किए हैं, जिससे पार्टी के परिवार के सदस्यों ने लगातार राजनीतिक पदों पर काबिज होने का अवसर पाया है. पिछले चार दशकों में, पार्टी ने लोकसभा, राज्यसभा और मुख्यमंत्री पदों पर अपने सदस्यों को बैठाया है, लेकिन इसका आदिवासी जनता पर क्या प्रभाव पड़ा है, यह एक महत्वपूर्ण सवाल है.

शिबू सोरेन

झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्रियों में से एक और झामुमो के राष्ट्रीय अध्यक्ष शिबू सोरेन ने 1980 से 2019 तक दुमका से लोकसभा सीट जीती. उनका मुख्यमंत्री के रूप में कार्यकाल तीन बार रहा, जिसमें 2005 में 10 दिनों का कार्यकाल भी शामिल है. उन्होंने 2004 से 2006 तक केंद्रीय कोयला मंत्री का पद भी संभाला और वर्तमान में राज्यसभा के सांसद हैं.

हेमंत सोरेन

शिबू सोरेन के मंझले बेटे व झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन  भी तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. वह 2010 से 2013 तक उपमुख्यमंत्री भी रहे और 2009-2010 में राज्यसभा के सदस्य रहे. वर्तमान में वह 4 अगस्त 2024 से मुख्यमंत्री पद पर हैं.

सीता सोरेन

शिबू सोरेन की पुतोहू (स्व. दुर्गा सोरेन की पत्नी) सीता सोरेन ने 2009 में विधानसभा में प्रवेश किया और 2014 और 2019 में अपनी सीट बरकरार रखी. हाल ही में वह झारखंड मुक्ति मोर्चा के पदों से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो गईं. वहीं, इस बार विधानसभा चुनाव में जामताड़ा से भाजपा के टिकट पर खड़ी हैं.

बसंत सोरेन

शिबू सोरेन के छोटे बेटे, बसंत सोरेन  ने 2016 में राज्यसभा चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए. 2019 में दुमका विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव में भी उन्हें हार का सामना करना पड़ा. फिर भी उन्हें मंत्री बना दिया गया. क्योंकि बड़े भाई हेमंत सोरेन का आशीर्वाद प्राप्त था.

कल्पना सोरेन

शिबू सोरेन की बहू और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन इन दिनों राजनीति में खूब सक्रिय हैं. पति हेमंत सोरेन के जेल जाने के बाद कल्पना सोरेन ने पार्टी की कमान संभाली और गांडेय विधानसभा उपचुनाव में जीतकर विधायक भी बन गई हैं. वहीं, इस बार भी गांडेय विधानसभा चुनाव लड़ रही हैं. वह सीएम हेमंत सोरेन के कंधे से कंधा मिलाकर झामुमाे के लिए कार्य कर रही हैं. इतना ही नहीं, विराेधियों को जवाब देने में भी किसी से पीछे नहीं हैं.

आदिवासी जनता को क्या मिला?

झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेताओं के इस परिवारिक राजनीति से आम आदिवासी जनता को क्या हासिल हुआ, यह एक गंभीर प्रश्न है. आदिवासी समुदाय, जो अक्सर विकास के लाभ से वंचित रह जाता है, को क्या लाभ हुआ है, यह समझना आवश्यक है. पार्टी के नेताओं ने अपने पदों का लाभ उठाकर व्यक्तिगत और परिवारिक हितों को आगे बढ़ाया है, लेकिन आदिवासी समुदाय की जरूरतों और मुद्दों को प्राथमिकता नहीं दी गई है.

आदिवासी जनता की आवाज़ और उनकी समस्याएं अक्सर राजनीतिक विमर्श में गायब होती हैं, और यह स्पष्ट है कि पार्टी की पारिवारिक राजनीति ने वास्तविक विकास के मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया है.  क्या वास्तव में झारखंड की गरीब और ग्रामीण आदिवासी जनता की जिंदगी में कोई सकारात्मक बदलाव आया है, या यह सिर्फ राजनीतिक लाभ का खेल है? यह उन लोगों के लिए एक विचारणीय मुद्दा है, जो आदिवासी समुदाय के वास्तविक विकास की कामना रखते हैं.

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