Joharlive Team

रांची: देशभर में शारदीय नवरात्र के मौके पर श्रद्धालु मां दुर्गा की भक्ति में लीन है, वहीं विजयादशमी के दिन होने वाले रावण दहन की तैयारियों को भी अंतिम रूप दिया जा रहा है। लेकिन झारखंड के विभिन्न हिस्सों में रहने वाली कई असुर आदिम जनजातियां लंका दहन और दुर्गा पूजा से दूर रहती हैं। रावण दहन से दूर रहने वाली असुर जनजातियां रावण को अपना कुलगुरु और महिषासुर का वंशज बताते हुए रावण वध एवं दुर्गा पूजा से खुद को अलग रखी है।

  • शिबू सोरेन ने भी रावण दहन से कर दिया था इंकार

झारखंड मुक्ति मोर्चा प्रमुख शिबू सोरेन ने भी अपने मुख्यमंत्री रहते रावण को कुलगुरु बताते हुए रांची के मोरहाबादी मैदान में आयोजित होने वाले रावण वध से इनकार कर दिया था। वहीं राज्य के विभिन्न सुदूरवर्ती हिस्सों में निवास करने वाली कई असुर प्रजाति और जनजाति समुदाय के लोग नवरात्र में मां दुर्गा की आराधना नहीं करते हैं।

  • असुर समाज की कई जातियां दुर्गा पूजा में मनाती हैं शोक

गुमला जिले के बिशनपुर और डुमरी प्रखंड में रहने वाले असुर प्रजाति के लोग भी नवरात्र में मां दुर्गा की पूजा-अर्चना नहीं करते है। इस प्रजाति के लोगों का मानना है कि वे सभी महिषासुर के वंशज है, इस कारण नवरात्र में इन लोगों में दुःख का माहौल रहता है। दुर्गा पूजा नहीं मनाने की उनकी यह परंपरा सदियों से चली आ रही हैं और इस दौरान असुर प्रजाति परिवार की महिला सदस्य पूरी तरह से मातमी वेशभूषा में रहती हैं। इस असुर प्रजाति के सदस्य न तो किसी पूजा पंडालों में जाकर दर्शन करते है और न ही नवरात्र में किसी प्रकार के जश्न में शामिल होते हैं। असुर जनजाति पर अध्ययन करने वाले जानकारों का कहना है कि असुर समाज शुरु से ही जंगलो में निवास करता आया है और ये लोग शुरु से ही भैंस की पूजा करते आए हैं, क्योंकि मां दुर्गा ने ही महिषासुर का सर्वनाश किया था। इसलिए ये लोग मां दुर्गा की पूजा आराधना नहीं करते और दुर्गा पूजा के दौरान शोक के माहौल में रहते हैं।

  • यहां मनाया जाता है महिषासुर का शहादत दिवस

जब पूरे देश में दुर्गात्सव का जश्न रहता है, तो गुमला के सुदूर पहाड़ियों और सिंहभूम इलाके में कई जगहों पर महिषासुर का शहादत दिवस भी मनाया जाता है। कई जगहों पर महिषासुर पूजे भी जाते हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक झारखंड में असुरों की आबादी करीब 22 हजार है और आदिम जनजातियों में असुर अति पिछड़ी श्रेणी में आती हैं। इस समाज में ऐसी मान्यता है कि वे लोग महिषासुर के वंशज है। इन समुदायों को ये भी जानकारी मिलती है कि वह आर्यो-अनार्यां की लड़ाई थी। इसमें महिषासुर मार दिए गए, कई जगहों पर लोग महिषासुर को राजा भी माना जाता है। इस समाज के लोग नवरात्र की शुरुआत के साथ दशहरा तक यानी दस दिनों तक शोक मनाते हैं। इस दौरान किसी किस्म के रीति-रस्म या परम्परा का निर्वहन नहीं होता। बड़े-बुजुर्गां के बताए गए नियमों के तहत उस रात एहतियात बरते जाते हैं, जब महिषासुर का वध हुआ था। असुर समाज में यह मान्यता है कि महिषासुर का असली नाम हुडुर दुर्गा था, वह महिलाओं पर हथियार नहीं उठाते थे, इसलिए देवी दुर्गा को आगे कर उनकी छल से हत्या कर दी गई।

  • बाबाधाम में भी रानेश्वर की पूजा अर्चना

देवघर स्थित विश्व प्रसिद्ध बाबा बैद्यनाथ धाम मंदिर के बारे में भी मान्यता है कि रावण ने ही यहां शिवलिंग की स्थापना की थी। लोकयुक्तियों के अनुसार कठिन तपस्या के बाद भगवान शिव प्रसन्न हो गये थे और कैलाश पर्वत से लंका जाने को तैयार हो गये। परंतु उन्होंने यह शर्त भी रखी थी कि शिवलिंग को रास्ते में कहीं नहीं रखना होगा और यदि कहीं रखा गया, तो फिर वह उसी जगह स्थापित हो जाएंगे।

इस बात की जानकारी जब अन्य देवी-देवताओं को लगी, तो देवता ने बैजु नामक चरवाहे का रुप धारण किया और देवघर में शिवगंगा के समीप जब रावण ने मूत्र विसर्जन करने के दौरान शिवलिंग को पास में खड़े बैजु नामक चारवाहे को पकड़ा दिया और सख्त हिदायत दी कि उसे जमीन पर न रखे। लेकिन देवताओं की महिमा के कारण रावण काफी देर तक मूत्र विसर्जित करता और ऐसी मान्यता है कि उसी के मूत्र से एक नदी और जलकुंड का निर्माण हो गया। इस बीच बैजु चरवाहे ने शिवलिंग को वहीं रख दिया और इस तरह से बैद्यनाथधाम में प्रसिद्ध शिवलिंग की स्थापना हुई, जहां हर वर्ष लाखों की संख्या में श्रद्धालु जलाभिषेक के लिए आते हैं। इसलिए इस धाम की पहचान रानेश्वर के रुप में भी है और यहां रावण की भी पूजा होती है।

  • संताल की भी कई जनजातियां रावण को मानती है अपना वंशज

संताल परगना प्रमंडल के गोड्डा, राजमहल और दुमका के भी कई इलाकों में विभिन्न जनजाति समुदाय के लोग रावण को अपना वंशज मानती है और इन क्षेत्रों में कभी रावण वध की परंपरा नहीं रही है और न ही नवरात्र में ये मां दुर्गा की पूजा-अर्चना करते हैं।

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