Joharlive Team
खूंटी। जनजातियों के लिए सुरक्षित तोरपा विधानसभा क्षेत्र का लगातार दो बार से प्रतिनिधित्व कर रहे झामुमो विधायक पौलुस सुरीन के लिए इस बार विधानसभा की राह आसान नहीं दिख रही। उनके पुराने प्रतिद्वंद्वी भाजपा के कोचे मुंडा तो मैदान में हैं ही, झारखंड पार्टी एनोस गुट के सुभाष कोंगाड़ी, झापा रिलन गुट के कुलन पतरस आईंद और झाविमो के मार्षल मुंडू भी चुनावी दंगल में नजर आयेंगे। संभावित उम्मीदवारों को देखते हुए इतना तय है कि विधानसभा चुनाव में तोरपा सीट पर बहुकोणीय मुकाबला देखने को मिलेगा। राजनीति के जानकार बताते हैं कि कोचे मुंडा के अलावा अन्य सभी उम्मदीवार ईसाई समुदाय के हैं। इसके कारण ईसाई मतों के बिखराव की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। क्षेत्र के लोग बताते हैं कि अपने दो सत्रों के कार्यकाल में विधायक पौलुस सुरीन ने गैर आदिवासी गांवों की उपेक्षा की। उन गांवों में विधायक निधि से कोई काम नहीं हुआ। इसको लेकर सदान मतदाता उनसे दूर जा सकते हैं। जानकार तो दावा करते हैं कि इस बार ईसाई समुदाय का एक धड़ा पौलुस सुरीन की कार्यशैली से नाराज है। इसका खमियाजा उन्हें भुगतना पड़ सकता है। वैसे देखा जाए तो तोरपा सीट शुरू से झारखंड पार्टी की परंपरागत सीट रही थी, पर एनई होरो के बाद पार्टी को यहां से कभी जीत नसीब नहीं हुई। तोरपा सीट से झापा आठ बार जीत हासिल कर चुकी है। कांग्रेस, भाजपा और झामुमो भी दो-दो बार जीत दर्ज कर चुके है।
जानकार बताते हैं कि तोरपा में पहली बार 1957 में विधानसभा चुनाव हुआ था। पहले चुनाव में झारखंड पार्टी के जुलियस मुंडा विधायक चुने गये थे। 1962, 1969, 1972, 1977, 1985, 1990 और 1995 में झारखंड पार्टी ने इस सीट से जीत हासिल की थी। 2000 और 2005 में भाजपा के कोचे मुंडा और 2009 और 2014 में झामुमो के पौलुस सुरीन ने जीत हासिल की। 1980 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस(आई) के
लियन्द्र ने कांग्रेस(यू) की सुशीला केरकेट्टा को पराजित कर पहली बार तोरपा सीट को कांग्रेस की झोली में डाला था, लेकिन 1985 में झापा के एनई होरो ने लियेंद्र तिड़ू को पराजित कर तोरपा सीट फिर अपने नाम कर लिया। 1995 में भी एनई होरो ने कांग्रेस की डोली कंडुलना को परास्त कर दिया था। उसके बाद झापा को वहां से कभी जीत नसीब नहीं हुई। हाल के दिनों में देखें, तो तोरपा विधानसभा क्षेत्र में भाजपा और झामुमो ने अपनी पकड़ मजबूत की है। झारखंड पार्टी खंड-खंड में बंट चुकी है। झाविमो और अन्य क्षत्रपों का कोई विशेष आधार क्षेत्र में नजर नहीं आता। इसलिए मुख्य मुकाबला एक फिर भाजपा और झामुमो के बीच हो, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
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