रांची : झारखंड गठन के 23 साल हो चुके हैं. इस दौरान ऐसे दर्जन भर राजनीतिज्ञ हुए, जिनकी संतानों ने उनकी राजनीतिक विरासत को अच्छी तरह ही नहीं, बल्कि शानदार तरीके से संभाल रखी है.
हेमंत सोरेन : झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष और झारखंड में विपक्ष के नेता हेमंत सोरेन के पिता शिबू सोरेन तो आज भी पार्टी के अध्यक्ष हैं. इसके अलावा वह सांसद भी हैं और राजनीति में सक्रिय हैं. हेमंत ने लोकसभा और विधानसभा के पिछले चुनाव में अपनी राजनीतिक समझदारी का बेहतरीन नमूना पेश किया. कुछ मायनों में तो वह अपने पिता को भी पीछे छोड़ चुके हैं.
हेमंत से पहले जो नाम
जयंत सिन्हा : जयंत सिन्हा बीजेपी से सांसद हैं. देश के कद्दावर नेता, विदेश और वित्त मंत्री की जिम्मेदारी संभाल चुके यशवंत सिन्हा ने लोकसभा का पिछला चुनाव नहीं लड़ा, बल्कि उन्होंने अपनी विरासत अपने पुत्र जयंत सिन्हा को सौंप दी. आइआइटी और हार्वर्ड बिजनेस स्कूल से पढ़े जयंत सिन्हा को कोई राजनीतिक अनुभव नहीं था. लेकिन उन्होंने न केवल हजारीबाग से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा, बल्कि शानदार जीत हासिल कर खुद को साबित किया.
संजीव सिंह : झरिया से भाजपा के पूर्व विधायक संजीव सिंह हैं, जो एक राजनीतिक परिवार में पैदा हुए और अपनी राजनीतिक पहचान बनायी. उनके पिता सूर्यदेव सिंह एकीकृत बिहार में विधायक थे और तत्कालीन समाजवादी राजनीति में उनका अलग स्थान था. संजीव की मां कुंती सिंह भी झारखंड विधानसभा की सदस्य थीं. पिछले चुनाव में कुंती सिंह ने अपने पुत्र के लिए झरिया सीट छोड़ दी और संजीव सिंह ने अपनी मां की राजनीतिक विरासत को अच्छी तरह संभाला संजीव सिंह का पूरा परिवार कोयलांचल की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखता है. कुणाल षाड़ंगी : कोल्हान से राजनीति में हमेशा सक्रिय रहे हैं पूर्व विधायक कुणाल षाड़ंगी. उनके पिता डॉ दिनेश षाड़ंगी भाजपा के कद्दावर नेता रह चुके हैं. उन्होंने मंत्री की जिम्मेदारी भी संभाली है. चुनावी राजनीति से अलग होने से पहले उन्होंने अपने पुत्र को विरासत सौंपी. आज कुणाल षाड़ंगी ने राजनीति में अपनी अलग पहचान बनायी है.
इरफान, देवेंद्र सिंह, अमित मंडल और विकास मुंडा
पांकी से कांग्रेस के देवेंद्र सिंह उर्फ बिट्टू सिंह, जामताड़ा से कांग्रेस के ही डॉ इरफान अंसारी, झामुमो के विकास मुंडा और गोड्डा से भाजपा के अमित मंडल के नाम शामिल हैं. इनमें से डॉ अंसारी को छोड़ बाकी सभी के पिता का निधन हो चुका है. बिट्टू सिंह के पिता विदेश सिंह पांकी से ही विधायक थे और उनके निधन के कारण वहां उप चुनाव हुआ था. अमित मंडल के पिता रघुनंदन मंडल गोड्डा से विधायक थे और उनके निधन के बाद भाजपा ने अमित मंडल को टिकट दिया. विकास मुंडा के पिता रमेश सिंह मुंडा तमाड़ के जदयू विधायक थे और नक्सली हिंसा में उनकी मौत हो गयी थी.
आलोक चौरसिया : डालटनगंज के विधायक आलोक चौरसिया के पिता अनिल चौरसिया वहां के कद्दावर राजनेता थे. हालांकि वह चुनावी राजनीति में कभी सफल नहीं हो सके, लेकिन उनकी अपनी पहचान थी. आलोक को अपने पिता की राजनीतिक पहचान की मदद भी मिली.
जयप्रकाश भाई पटेल : मांडू के विधायक जयप्रकाश भाई पटेल के पिता टेकलाल महतो झामुमो के कद्दावर नेताओं में शुमार थे. वह सांसद और विधायक भी बने. जयप्रकाश भाई पटेल ने अपने पिता की विरासत को कुशलता के साथ संभाल रखा है.
विनोद सिंह : विनोद सिंह का भाकपा माले के विधायक रहे महेंद्र सिंह के पुत्र हैं. वह गिरिडीह-बगोदर इलाके में जन समस्याओं को लेकर मुखर हैं. विनोद सिंह ने विधायक के रूप में अपने पिता द्वारा स्थापित शानदार परंपरा का निर्वाह किया. वह अकेले ऐसे विधायक थे, जिन्होंने विधानसभा में विधायकों का वेतन-भत्ता बढ़ाने के प्रस्ताव का न केवल विरोध किया था, बल्कि बढ़ा हुआ वेतन लेने से भी मना कर दिया था.
गीताश्री उरांव : गीताश्री उरांव का नाम भी प्रमुख है. वह सिसई (गुमला) से विधायक रह चुकी हैं. गीताश्री उरांव के पिता कार्तिक उरांव कांग्रेस के आदिवासी नेताओं की पहली पंक्ति में शामिल थे. उनके निधन के बाद उनकी पत्नी सुमति उरांव भी सांसद और केंद्र में मंत्री बनीं. राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं.
अमित यादव और भानू प्रताप शाही
अमित यादव भी अपने पिता चित्तरंजन यादव के निधन के कारण खाली हुई सीट से चुनाव लड़े और विधायक बने. भवनाथपुर (गढ़वा) से विधायक भानु प्रताप शाही के पिता लाल हेमेंद्र प्रताप देहाती 1972 में भवनाथपुर से चुनाव लड़ चुके हैं. इलाके में उनका राजनीतिक कद बहुत बड़ा है. भानु ने हालांकि अपनी राजनीतिक जमीन खुद तैयार की, लेकिन अपने पिता की विरासत को उन्होंने आगे बखूबी आगे बढ़ाया. इसी तरह गिरिडीह के भाजपा सांसद रविंद्र कुमार पांडेय के पिता कृष्ण मुरारी पांडेय बेरमो-बोकारो इलाके के बड़े कांग्रेसी नेताओं में शुमार थे.