रांची: राज्य के सबसे बड़े हॉस्पिटल रिम्स में व्यवस्था सुधारने को लेकर करोड़ों रुपए खर्च किए जाते है. हर साल हॉस्पिटल का सालाना बजट भी बढ़ाया जा रहा है. इसके बावजूद मरीजों को हॉस्पिटल में बेसिक सुविधाएं भी नहीं मिल पाती है. कभी मशीनें खराब रहती है तो कभी दवाएं नहीं मिल पाती. वहीं डेवलपमेंट के नाम पर करोड़ों रुपए का काम जारी रहता है. फिर भी मरीज परेशान रहते है. अब स्वास्थ्य विभाग ने इस बार हॉस्पिटल को 465 करोड़ रुपए कर दिया है. वहीं राशि का आवंटन भी विभाग ने कर दिया है. ऐसे में उम्मीद है कि चालू वित्तीय वर्ष में मरीजों को बेहतर सुविधा मिलेगी.
1960 से शुरू हुई रिम्स की यात्रा
1960 में रांची मेडिकल कॉलेज की यात्रा 150 छात्रों के पहले बैच से शुरू हुई थी. तब से आज तक ये संस्थान पहले आरएमसीएच बना और अब रिम्स के नाम से जाना जाता है. लेकिन इतने सालों के इस सफर में रिम्स में कई बड़े बदलाव देखने को मिले. कई नामी डायरेक्टर के हाथों में हॉस्पिटल की कमान गई. लेकिन आज भी यह हॉस्पिटल कई मायनों में पिछड़ रहा है.
वहीं सुविधाओं की बात करें तो इसपर करोड़ों रुपए फूंक दिए गए. पर यहां इलाज के लिए आने वाले मरीज आज भी प्राइवेट जांच घरों के भरोसे है. रिम्स में या तो मशीनें पुरानी हो चुकी है या फिर खराब पड़ी है. लेकिन इन सबका खामियाजा रिम्स में आने वाले मरीज भुगत रहे है. बता दें कि 1963 में देश के पहले राष्ट्रपति के निधन के बाद रांची मेडिकल कालेज का नाम बदलकर राजेंद्र मेडिकल कालेज हॉस्पिटल हुआ. इसके बाद 2002 में एम्स की तर्ज पर आरएमसीएच का नाम रिम्स किया गया.
बजट के बाद भी मशीनें दुरुस्त नहीं
राज्य के सबसे बड़े सरकारी हॉस्पिटल रिम्स का बजट 400 करोड़ रूपए से अधिक का है. दवा से लेकर मशीनों की खरीदारी के लिए कमिटी भी है. लेकिन शायद ही कभी ऐसा हुआ कि सभी मशीनें दुरुस्त हो. इसका उदाहरण हॉस्पिटल में लगी सीटी स्कैन और एमआरआई मशीनें है. जो दस साल से अधिक पुरानी हो चुकी है. अब ये मशीनें एनुअल मेंटेनेंस के भी लायक नहीं है. इसके बावजूद प्रबंधन नई मशीनों की खरीदारी नहीं कर रहा है. आज स्थिति यह है कि कैंपस में पीपीपी मोड पर काम कर रही प्राइवेट एजेंसी ही रिम्स के मरीजों की रेडियोलॉजी जांच कर रही है.
इमरजेंसी के मरीजों का इलाज तो ट्रामा सेंटर में लगी सीटी और अन्य मशीनों से हो जाता है. बाकी सामान्य मरीजों को लंबी वेटिंग मिल रही है. जल्दी रिपोर्ट के चक्कर में उनके पास प्राइवेट में जाने के अलावा कोई चारा नहीं है. वहीं ब्लड टेस्ट के लिए भी रिम्स मेडाल के भरोसे है. जबकि इस एजेंसी को पीपीपी मोड पर इसलिए लाया गया था ताकि वैसी जांच की जा सके जो रिम्स में उपलब्ध न हो. पर आज की स्थिति यह है कि इस लैब में मरीजों के सभी टेस्ट किए जा रहे है.
बेड बढ़े पर मैनपावर नहीं
हॉस्पिटल में मैनपावर की भारी कमी है. डॉक्टर से लेकर नर्स भी मरीजों की तुलना में कम है. इसके अलावा वार्ड ब्वाय और अन्य स्टाफ भी कम है. जिस वजह से मरीजों की प्रापर देखभाल नहीं हो पाती. इसे लेकर भी प्रबंधन गंभीर नहीं है. जबकि स्थापना के बाद से लगातार बेड बढ़ते जा रहे है. नए विंग बनाए जा रहे है. लेकिन इसकी तुलना में मैन पावर बढ़ाने को लेकर प्रबंधन ने ध्यान नहीं दिया. काम चलाने के लिए आउट सोर्स पर स्टाफ तो रखे जा रहे है पर वे भी पूरी तरह से ट्रेंड नहीं है. इस वजह से भी मरीज परेशान है.
पूरा है बजट फिर भी बाहर से ले रहे दवा
हॉस्पिटल के बड़े बजट में एक हिस्सा दवाओं का भी है. इसके लिए स्वास्थ्य विभाग भी फंड देता है. इसके बावजूद हॉस्पिटल में दवाओं की कमी है. इनडोर में इलाज करा रहे मरीजों को सभी दवाएं नहीं मिल पाती. वहीं ओपीडी के मरीजों को भी डिस्पेंसरी से खाली हाथ लौटना पड़ता है. ऐसी स्थिति में मरीजों के पास बाहर से दवा खरीदने के अलावा कोई चारा नहीं होता. इस चक्कर में मरीजों को अपनी जेब ढीली करनी पड़ती है. इतना ही नहीं मरीजों के साथ परिजनों को भी परेशानी झेलनी पड़ती है. वहीं जेनरिक दवा को लेकर डॉक्टरों के भी नखरे कम नहीं है.