Joharlive Team
पूजन मुहूर्त सुबह 5: 50 से रात्रि 9 :10 तक
रवियोग में मनेगा तीज व्रत
बुधादित्य योग में मानेगा तीज
कैसे हो पूजा कोरोना काल मे:-
वैसे यह व्रत पूरे विधिविधान से किया जाता है। दिन में किसी नदी या किसी के घर मे जुटकर औऱ रात्रि में महिलाएं गीत संगीत का कार्यक्रम करती हैं। पर वर्तमान समय में पूरा विश्व कोरोना से पीड़ित है। वैसे हालात में इस प्रकार के भीड़ भाड़ से बचना चाहिए। प्रयास करे कि पूजा एकले हो और यदि हो सके तो किसी को नही बुलाया जाय। यहां तक किपण्डित जी भी नही हो आप स्वयम पूजा करे और सामग्री ब्राह्मण के घर बड़े सावधानी से देकर आये। वर्तमान दौर में मोबाइल से भी ऑनलाइन पूजा किया जा रहा है। उसका भी सहारा लिया जा सकता है।
अविरल दाम्पत्य सुख एवं अखंड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए सुहागन स्त्रियों द्वरा किया जाने वाला व्रत हरतालिका तीज की माहात्म्य अपरंपार है। प्रसिद्ध ज्योतिष आचार्य प्रणव मिश्रा ने बताया कि यह व्रत भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की तृतीय तिथि को मनाया जाता है। इस तिथि को गौरी तृतीय के नाम से भी जाना जाता है। यह हरतालिका तीज का व्रत भगवान महादेव और माता गौरी को समर्पित है। तीज का व्रत हस्त नक्षत्र में किया जाना चाहिए जो की 21 अगस्त शुक्रवार को है। विधि-विधान से हरितालिका तीज का व्रत करने से विवाहित महिलाओं का सौभाग्य अखंड रहता वही कुंवारी कन्याओं को मनचाहे वर की प्राप्ति होती है।तीज में भगवान शिव, माँ पार्वती एवम भगवान गणेश की पूजा का विधान हैं। यह व्रत निराहार एवं निर्जला किया जाता हैं। तीज पूजा का विधान- *तीज का व्रत प्रदोषकाल में किया जाना चाहिए। यह दिन और रात के मिलन का समय होता है। सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्त को प्रदोषकाल कहा जाता है इस काल में पूजा कारण शुभफलदायी होता है।। * माता पार्वती, भगवान शिव और गणेश की प्रतिमा चौकी में रेत से बनाकर स्थापित करना चाहिए। *पूजा स्थल को फूलों से सजाकर एक चौकी रखें और उस चौकी पर बेलपत्र का झालर बनाकर भगवान शंकर, माता पार्वती और भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित करें। षोडशोपचार विधि से पूजन करें।। * सुहाग की सारी वस्तु एवं वस्त्र माता पार्वती को एवं भोलेनाथ को अर्पित करना चाहिए। पूजा के बाद इस सामग्री को ब्राम्हण को दान देना चाहिए। * इस के बाद पूजन कर कथा सुनें और रात्रि जागरण करें। आरती के बाद सुबह माता पार्वती को सिंदूर चढ़ाएं एवं भोग लगाकर व्रत खोलें। पूजा का शुभ मुहूर्त:
हरितालिका पूजन प्रातःकाल नहीं करना चाहिए। प्रदोष काल सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्त में किया जाना ही शास्त्रसम्मत एवं शुभकारी है।
प्रदोषकाल निकालने के लियेे स्थानीय सूर्यास्त में आगे के 96 मिनट जोड़ दें तो यह एक घंटे 36 मिनट के लगभग का समय प्रदोष काल माना जाता है।
21 अगस्त प्रदोष काल मुहूर्त : सायं 06:41बजे से रात्रि: 8:58 तक
पारण अगले दिन 22 अगस्त प्रातः काल 06:00 बजकर 34 मिनट के बाद करना उत्तम है।। तीज व्रत कथा-
भगवान शिव ने पार्वतीजी को उनके पूर्व जन्म का स्मरण कराने के उद्देश्य से इस व्रत के माहात्म्य की कथा सुनाई थी।
भगवान शंकर बोले- हे गौरी! पर्वतराज हिमालय पर स्थित गंगा के तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में बारह वर्षों तक अधोमुखी होकर घोर तप किया था। इतनी अवधि तुमने अन्न न खाकर पेड़ों के सूखे पत्ते चबा कर व्यतीत किए। माघ की विक्राल शीतलता में तुमने निरंतर जल में प्रवेश करके तप किया। वैशाख की जला देने वाली गर्मी में तुमने पंचाग्नि से शरीर को तपाया। श्रावण की मूसलधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न-जल ग्रहण किए समय व्यतीत किया।
तुम्हारे पिता तुम्हारी कष्ट साध्य तपस्या को देखकर बड़े दुखी होते थे। उन्हें बड़ा क्लेश होता था। तब एक दिन तुम्हारी तपस्या तथा पिता के क्लेश को देखकर नारदजी तुम्हारे घर पधारे। तुम्हारे पिता ने हृदय से अतिथि सत्कार करके उनके आने का कारण पूछा।
नारदजी ने कहा- गिरिराज! मैं भगवान विष्णु के भेजने पर यहां उपस्थित हुआ हूं। आपकी कन्या ने बड़ा कठोर तप किया है। इससे प्रसन्न होकर वे आपकी सुपुत्री से विवाह करना चाहते हैं। इस संदर्भ में आपकी राय जानना चाहता हूं।
नारदजी की बात सुनकर गिरिराज गद्गद हो उठे। उनके तो जैसे सारे क्लेश ही दूर हो गए। प्रसन्नचित होकर वे बोले- श्रीमान्! यदि स्वयं विष्णु मेरी कन्या का वरण करना चाहते हैं तो भला मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। वे तो साक्षात ब्रह्म हैं। हे महर्षि! यह तो हर पिता की इच्छा होती है कि उसकी पुत्री सुख-सम्पदा से युक्त पति के घर की लक्ष्मी बने। पिता की सार्थकता इसी में है कि पति के घर जाकर उसकी पुत्री पिता के घर से अधिक सुखी रहे।
तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर नारदजी विष्णु के पास गए और उनसे तुम्हारे विवाह निश्चित होने का समाचार सुनाया। मगर इस विवाह संबंध की बात जब तुम्हारे कान में पड़ी तो तुम्हारे दुख का ठिकाना न रहा।
तुम्हारी एक सखी ने तुम्हारी इस मानसिक दशा को समझ लिया और उसने तुमसे उस विक्षिप्तता का कारण जानना चाहा। तब तुमने बताया – मैंने सच्चे हृदय से भगवान शिवशंकर का वरण किया है, किंतु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी से निश्चित कर दिया। मैं विचित्र धर्म-संकट में हूं। अब क्या करूं? प्राण छोड़ देने के अतिरिक्त अब कोई भी उपाय शेष नहीं बचा है। तुम्हारी सखी बड़ी ही समझदार और सूझबूझ वाली थी।
उसने कहा- सखी! प्राण त्यागने का इसमें कारण ही क्या है? संकट के मौके पर धैर्य से काम लेना चाहिए। नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि पति-रूप में हृदय से जिसे एक बार स्वीकार कर लिया, जीवनपर्यंत उसी से निर्वाह करें। सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के समक्ष तो ईश्वर को भी समर्पण करना पड़ता है। मैं तुम्हें घनघोर जंगल में ले चलती हूं, जो साधना स्थली भी हो और जहां तुम्हारे पिता तुम्हें खोज भी न पाएं। वहां तुम साधना में लीन हो जाना। मुझे विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे।
तुमने ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हें घर पर न पाकर बड़े दुखी तथा चिंतित हुए। वे सोचने लगे कि तुम जाने कहां चली गई। मैं विष्णुजी से उसका विवाह करने का प्रण कर चुका हूं। यदि भगवान विष्णु बारात लेकर आ गए और कन्या घर पर न हुई तो बड़ा अपमान होगा। मैं तो कहीं मुंह दिखाने के योग्य भी नहीं रहूंगा। यही सब सोचकर गिरिराज ने जोर-शोर से तुम्हारी खोज शुरू करवा दी।
इधर तुम्हारी खोज होती रही और उधर तुम अपनी सखी के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराधना में लीन थीं। भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र था। उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण करके व्रत किया। रात भर मेरी स्तुति के गीत गाकर जागीं। तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन डोलने लगा। मेरी समाधि टूट गई। मैं तुरंत तुम्हारे समक्ष जा पहुंचा और तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर तुमसे वर मांगने के लिए कहा।
तब अपनी तपस्या के फलस्वरूप मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा – मैं हृदय से आपको पति के रूप में वरण कर चुकी हूं। यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर आप यहां पधारे हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिए।
तब मैं ‘तथास्तु’ कह कर कैलाश पर्वत पर लौट आया। प्रातः होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री को नदी में प्रवाहित करके अपनी सहेली सहित व्रत का पारणा किया। उसी समय अपने मित्र-बंधु व दरबारियों सहित गिरिराज तुम्हें खोजते-खोजते वहां आ पहुंचे और तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या का कारण तथा उद्देश्य पूछा। उस समय तुम्हारी दशा को देखकर गिरिराज अत्यधिक दुखी हुए और पीड़ा के कारण उनकी आंखों में आंसू उमड़ आए थे।
तुमने उनके आंसू पोंछते हुए विनम्र स्वर में कहा- पिताजी! मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय कठोर तपस्या में बिताया है। मेरी इस तपस्या का उद्देश्य केवल यही था कि मैं महादेव को पति के रूप में पाना चाहती थी। आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूं। आप क्योंकि विष्णुजी से मेरा विवाह करने का निर्णय ले चुके थे, इसलिए मैं अपने आराध्य की खोज में घर छोड़कर चली आई। अब मैं आपके साथ इसी शर्त पर घर जाऊंगी कि आप मेरा विवाह विष्णुजी से न करके महादेवजी से करेंगे।
गिरिराज मान गए और तुम्हें घर ले गए। कुछ समय के पश्चात शास्त्रोक्त विधि-विधानपूर्वक उन्होंने हम दोनों को विवाह सूत्र में बांध दिया।
हे पार्वती! भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के फलस्वरूप मेरा तुमसे विवाह हो सका। इसका महत्व यह है कि मैं इस व्रत को करने वाली कुंआरियों को मनोवांछित फल देता हूं। इसलिए सौभाग्य की इच्छा करने वाली प्रत्येक युवती को यह व्रत पूरी एकनिष्ठा तथा आस्था से करना चाहिए।
आचार्य प्रणव मिश्रा
आचार्यकुलम, अरगोड़ा रांची
8210075897