Johar Live Desk : रीतिकालीन महाकवि भूषण ने मराठा साम्राज्य के संस्थापक और मराठी अस्मिता के सबसे लोकप्रिय प्रतीक छत्रपति शिवाजी की प्रशंसा करते हुए लिखा है : “इंद्र जिमि जंभ पर, बाडब सुअंभ पर, रावन सदंभ पर, रघुकुल राज हैं. पौन बारिबाह पर, संभु रतिनाह पर, ज्यौं सहस्रबाह पर राम-द्विजराज है. दावा द्रुम दंड पर, चीता मृगझुंड पर, भूषन वितुंड पर, जैसे मृगराज हैं. तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर, त्यौं मलिच्छ बंस पर, सेर शिवराज है”. (जिस प्रकार जंभासुर पर इंद्र, समुद्र पर बड़वानल, रावण के दंभ पर भगवान राम, बादलों पर पवन, रति के पति अर्थात कामदेव पर शंभु, सहस्रबाहु पर परशुराम, पेड़ों के तनों पर दावानल, हिरणों के झुंड पर चीता, हाथी पर शेर, अंधेरे पर प्रकाश और कंस पर कृष्ण भारी हैं, उसी प्रकार म्लेच्छ वंश पर शिवाजी शेर के समान हैं.)
निस्संदेह, इन पंक्तियों में महाकवि ने छत्रपति की अपने समय में लोकप्रिय छवि से न्याय करने के लिए अपनी कवि प्रतिभा के इस्तेमाल में कोई कोताही नहीं बरती है. लेकिन समय के साथ शिवाजी जैसी बहुरंगी या इंद्रधनुषी छवि निर्मित हो गयी है और आज जिस तरह विभिन्न विचारधाराओं के अनुयायी उस छवि को अपने अनुरूप ढाल कर उन्हें अपना बनाने और उनकी स्मृतियों के संरक्षण में लगे हैं, उसके मद्देनजर उनकी तरफ और भी बहुत सी दृष्टियों से देखने की जरूरत महसूस होती है.
खासकर इस तथ्य के आईने में कि भारतीय लोकतंत्र के 75 वर्ष बाद भी वे इसके सबसे लोकप्रिय शासकों में से एक बने हुए हैं. विभिन्न विचारधाराओं के लोग अब उन्हें अपनी-अपनी भावनाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप सिद्ध कर अपनी-अपनी तरह से याद करते हैं. कोई उन्हें ‘गौ-ब्राह्मण परिपालक’ और ‘देश का पहला हिंदू हृदय सम्राट’ बताता है, तो कोई सर्वधर्म समभाव व लोककल्याण का पैरोकार. हां, मुगल बादशाह औरंगजेब से लंबे अरसे तक चले उनके संघर्ष की बिना पर जब तब उनके मुस्लिम विरोधी रूप को आगे करने की कोशिशें भी की जाती हैं, लेकिन वे बहुत आगे नहीं बढ़ पातीं, क्योंकि यह प्रमाणित हो चुका है कि औरंगजेब से उनका संघर्ष दो देशी-विदेशी साम्राज्यों का संघर्ष था, धर्मों का नहीं.
दरअसल, शिवाजी की सेना में भी उनके लिए अपनी जान की बाजी लगा देने वाले दूसरे धर्मों, खासकर इस्लाम के अनेक अनुयायी निर्णायक पदों पर थे. यही नहीं, अपने साम्राज्य की सीमाओं के विस्तार के लिए वे हिंदू धर्म के अनुयायी राजाओं से भी लड़ते रहे. एक बार उनको मुस्लिम विरोधी मानने वाले कुछ लोगों ने महाराष्ट्र में सतारा के पास प्रतापगढ़ में स्थित अफजल खान (जो धोखे से मिलने के लिए बुलाकर उनकी हत्या करना चाहता था और इस कोशिश में उनके बघनखे के वार से खुद मारा गया था) का मकबरा तोड़ना चाहा, तो यह जानकर चकित रह गये कि उस मकबरे को तो स्वयं शिवाजी ने ही बनवाया था.
शिवाजी के दादा मालोजीराव भोसले ने शाह शरीफ नाम के सूफी संत के सम्मान में अपने बेटों के नाम शाहजी और शरीफजी रखे थे और अपनी राजधानी रायगढ़ में अपने महल के पास जब मंदिर बनवाया, तो साथ में मस्जिद भी बनवायी थी. जानकारों के अनुसार, जब भी शिवाजी किसी राज्य पर आक्रमण करते, तो सैनिकों को साफ-साफ कह देते थे कि वे किसी भी स्थिति में महिलाओं, बच्चों, धर्मस्थलों व धर्मग्रंथों को नुकसान न पहुंचाएं. एक बार उनके सैनिक लूट के माल के साथ बसाई के नवाब की खूबसूरत बहू को भी उठा लाये, तो उन्होंने पहले अपने सैनिकों की ओर से उससे माफी मांगी, फिर ससम्मान उसके महल वापस पहुंचवा दिया था.
यह जानना भी दिलचस्प है कि मराठा साम्राज्य की स्थापना के सिलसिले में कोई साढ़े तीन शताब्दी पहले छह जून, 1674 को उनका राज्याभिषेक हुआ, तो उन्हें अपनी जाति के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा था. वर्ष 1630 में 19 फरवरी को कुसूर के शिवनेरी फोर्ट में माता जीजाबाई और पिता शाहजी भोंसले की संतान के रूप में जन्मे शिवाजी के कुलगोत्र को लेकर संशय के शिकार स्थानीय रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने उनका राज्याभिषेक कराने में हिचक दिखायी, तो इसके लिए विशेष दूत भेजकर बनारस से पंडित गंगभट्ट को बुलाया गया, जिन्होंने वैदिक रीति से राज्याभिषेक संपन्न कराया. इतिहासकार बताते हैं कि उस समारोह में 50 हजार से ज्यादा लोग शामिल हुए थे और वहीं शिवाजी को छत्रपति की उपाधि दी गयी. पहले कई मराठा सामंत शिवाजी को राजा या महाराज नहीं मानते थे. लेकिन राज्याभिषेक के बाद हाथियों को सजाकर भव्य शोभायात्रा निकाली गयी, जिसमें एक हाथी पर बैठकर शिवाजी रायगढ़ की सड़कों पर निकले, तो भावभीने स्वागत के बीच उन सबने उन्हें अपना महाराज स्वीकार कर लिया.
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